राग भैरूँ / पृष्ठ - १ / पद / कबीर
ऐसा ध्यान धरौ नरहरी
सबद अनाहद च्यंत करी॥टेक॥
पहलो खोजौ पंचे बाइ, बाइ ब्यंद ले गगन समाइ।
गगन जोति तहाँ त्रिकुटी संधि, रबि ससि पवनां मेलौ बंधि॥
मन थिर होइ न कवल प्रकासै, कवला माँहि निरंजन बासै।
सतगुरु संपट खोलि दिखावै, निगुरा होइ तो कहाँ बतावै।
सहज लछिन ले तजो उपाधि, आसण दिढ निद्रा पुनि साधि॥
पुहुप पत्रा जहाँ हीरा मणीं, कहै कबीर तहाँ त्रिभुवन धणीं॥325॥
इहि बिधि सेविये श्री नरहरी,
मन ही दुविध्या मन परहरी॥टेक॥
जहाँ नहीं तहाँ कछू जाँणि, जहाँ नहीं तहाँ लेहु पछाँणि॥
नांही देखि न जइये भागि, जहाँ नहीं तहाँ रहिये लागि॥
मन मंजन करि दसवैं द्वारि, गंगा जमुना सधि बिचारि॥
नादहि ब्यंद कि ब्यंदहि नाद, नादहिं ब्यंद मिलै गोब्यंद।
देवी न देवा पूजा नहीं जाप, भाइ न बंध माइ नहीं बाप।
गुणातीत जस निरगुन आप, भ्रम जेवड़ो जन कीया साप॥
तन नांही कब जब मन नांही, मन परतीति ब्रह्म मन मांहि।
परहरि बकुला ग्रहि गुन डार, निरखि देखि निधि वार न पार॥
कहै कबीर गुरपरम गियांन, सुनि मंडल मैं धरो धियांन॥
प्यंडं परे जीव जैहैं जहाँ, जीवत ही ले राखी तहाँ॥326॥
अलह अलख निरंजन देव, किहि बिधि करौं तुम्हारी सेव॥टेक॥
विश्न सोई जाको विस्तार, सोई कृस्न जिनि कीयौ संसार।
गोब्यंद ते ब्रह्मंडहि नहै, सोई राम जे जुगि जुगि रहै॥
अलह सोई जिनि उमति उपाई, दस दर खोलै सोई खुदाई।
लख चौरासी रब परवरै, सोई करीब जे एती करै।
गोरख सोई ग्यांन गमि गहे, महादेव सोई मन को लहै॥
सिध सोई जो साधै इति, नाय सोई जो त्रिभवन जती।
सिध साधू पैकंबर हूवा, जपै सू एक भेष है जूवा।
अपरंपार की नांउ अनंत, कहै कबीर सोई भगवंत॥327॥
तहाँ जौ राम नाम ल्यौ लागै,
तो जरा मरण छूटै भ्रम भागै॥टेक॥
अगम निगम गढ़ रचि ले अवास, तहुवां जोलि करै परकास।
चमकै बिजुरी तार अनंत, तहाँ प्रभु बैठे कवलाकंत॥
अखंड मंडित मंडित भंड, त्रि स्नांन करै त्रीखंड॥
अगम अगोचर अभिअंतश, ताकौ पार न पावै धरणीधरा।
अरध उरध बिचि लाइ ले अकास, तहुंवा जोति करै परकास।
टारौं टरै न आवै जाइ, सहज सुंनि मैं रह्यौ समाइ।
अबरन बरन स्यांम नहीं पीत, होहू जाइ न गावै गीत।
अनहद सबद उठे झणकार, तहाँ प्रभु बैठे समरथ सार।
कदली पुहुप दीप परकास, रिदा पंकज मैं लिया निवास।
द्वादस दल अभिअंतरि स्यंत, तहाँ प्रभु पाइसि करिलै च्यंत॥
अमलिन मलिन घाम नहीं छांहां, दिवस न राति नहीं हे ताहाँ।
तहाँ न उगै सूर न चंद, आदि निरंजन करै अनंद॥
ब्रह्मंडे सो प्यंडे जांन, मानसरोवर करि असनांन।
सोहं हंसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप॥
काया मांहै जांनै सोई, जो बोलै सो आपै होई।
जोति मांहि जे मन थिर करै, कहै कबीर सो प्रांणी तिरै॥328॥
एक अचंभा ऐसा भया,
करणीं थैं कारण मिटि गया॥टेक॥
करणी किया करम का नास, पावक माँहि पुहुप प्रकास।
पुहुप मांहि पावक प्रजरै, पाप पुंन दोउ भ्रम टरै॥
प्रगटी बास बासना धोइ, कुल प्रगट्यौ कुल घाल्यौ खोइ।
उपजी च्यंत च्यंत मिटि गई, भौ भ्रम भागा ऐसे भई।
उलटी गंग मेर कूँ चली, धरती उलटि अकासहिं मिली॥
दास कबीर तत ऐसी कहै, ससिहर उलटि राह की गहै॥329॥
है हजूरि क्या दूर बतावै,
दुंदर बाँधे सुंदर पावै॥टेक॥
सो मुलनां जो मनसूँ लरै, अह निसि काल चक्र सूँ भिरै।
काल चक्र का मरदै मांन, तां मुलनां कूँ सदा सलांम॥
काजी सो जो काया बिचारे, अहनिसि ब्रह्म अगनि प्रजारै।
सुप्पनै बिंद न देई झरनां, ता काजी कूँ जुरा न मरणां॥
सो सुलितान जु द्वै सुर तानै, बाहरि जाता भीतरि आनै।
गगन मंडल मैं लसकर करै, सो सुलितान छत्रा सिरि धरै॥
जोगी गोरख गोरख करै, हिंदू राम नाम उच्चरै।
मुसलमान कहै एक खुदाइ, कबीरा को स्वांमी घटि घटि रह्यो समाइ॥330॥
आऊँगा न जाऊँगा, न मरूँगा न जीऊँगा।
गुर के सबद मैं रमि रमि रहूँगा॥टेक॥
आप कटोरा आपै थारी, आपै पुरिखा आपै नारी।
आप सदाफल आपै नींबू, आपै मुसलमान आपै हिंदू॥
आपै मछकछ आपै जाल, आपै झींवर आपै काल।
कहै कबीर हम नांही रे नांही, नां हम जीवत न मूवले मांही॥331॥
हम सब मांहि सकल हम मांहीं,
हम थैं और दूसरा नाहीं॥टेक॥
तीनि लोक मैं हमारा पसारा, आवागमन सब खेल हमारा।
खट दरसन कहियत हम मेखा, हमहीं अतीत रूप नहीं रेखा।
हमहीं आप कबीर कहावा, हमहीं अपनां आप लखावा॥332॥
सो धन मेरे हरि का नांउ, गाँठि न बाँधौं बेचि न खांउं॥टेक॥
नांउ मेरे खेती नांउ मेरे बारी, भगति करौं मैं सरनि तुम्हारी।
नांउ मेरे सेवा नांउ मेरे पूजा, तुम्ह बिन और न जानौ दूजा॥
नांउ मेरे बंधव नांव मेरे भाई, अंत कि बेरियां नाँव सहाई।
नांउ मेरे निरधन ज्यूँ निधि पाई, कहैं कबीर जैसे रंक मिठाई॥333॥
अब हरि अपनो करि लीनौं, प्रेम भगति मेरौ मन भीनौं॥टेक॥
जरै सरीर अंग नहीं मोरौ, प्रान जाइ तो नेह तोरौ।
च्यंतामणि क्यूँ पाइए ठोली, मन दे राम लियौ निरमोली॥
ब्रह्मा खोजत जनम गवायौ, सोई राम घट भीतरि पायो।
कहै कबीर छूटी सब आसा, मिल्यो राम उपज्यौ बिसवासा॥334॥
लोग कहै गोबरधनधारी, ताकौ मोहिं अचंभो भारी॥टेक॥
अष्ट कुली परबत जाके पग की रैना, सातौ सायर अंजन नैना॥
ए उपभां हरि किती एक ओपै, अनेक भेर नख उपारि रोपै॥
धरनि अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुगधा कहै न साखी।
सिव बिरंचि नारद जस गावै, कहै कबीर वाको पार न पावै॥335॥