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राग भैरूँ / पृष्ठ - २ / पद / कबीर

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राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे॥टेक॥
अंजन उतपति वो उंकार, अंजन मांड्या सब बिस्तार।
अंजन ब्रह्मा शंकर ईद, अंजन गोपी संगि गोब्यंद॥
अंजन बाणी अंजन बेद, अंजन कीया नांनां भेद।
अंजन विद्या पाठ पुरांन, अंजन फोकट कथाहिं गियांन॥
अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव॥
अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै।
अंजन कहौ कहाँ लग केता, दांन पुनि तप तीरथ जेता॥
कहै कबीर कोई बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै॥336॥

अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहूँ बिचार॥टेक॥
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई।
अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घट रह्यौ समाइ।
जोग ग्यांन तप सबै बिकार, कहै कबीर मेरे राम अधार॥337॥

एक निरंजन अलह मेरा, हिंदु तुरक दहू नहीं नेरा॥टेक॥
राखूँ ब्रत न मरहम जांनां, तिसही सुमिरूँ जो रहै निदांनां।
पूजा करूँ न निमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमसकारूँ॥
नां हज जांउं न तीरथ पूजा, एक पिछांणा तौ का दूजा।
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूँ मन लागा॥338॥

तहाँ मुझ गरीब की को गुदरावै, मजलिस दूरि महल को पावै॥टेक॥
सत्तरि सहस सलार है जाके, असी लाख पैकंबर ताके।
सेख जु कहिय सहस अठासी, छपन कोड़ि खलिबे खासी।
कोड़ि तैतीसूँ अरु खिलखांनां, चौरासी लख फिरै दिवांना॥
बाबा आदम पै नजरि दिलाई, नबी भिस्त घनेरी पाई।
तुम्ह साहिब हम कहा भिखारी, देत जबाब होत बजगारी॥
जब कबीर तेरी पनह समांनां, भिस्त नजीक राखि रहिमांनां॥339॥

जौ जाचौं तो केवल राम, आंन देव सूँ नांहीं काम॥टेक॥
जाकै सूरिज कोटि करै परकास, कोटि महादेव गिरि कबिलास।
ब्रह्मा कोटि बेद ऊचरै, दुर्गा कोटि जाकै मरदन करैं॥
कोटि चंद्रमां गहै चिराक, सुर तेतीसूँ जीमैं पाक।
नौग्रह कोटि ठाढे दरबार, धरमराइ पौली प्रतिहार॥
कोटि कुबेर जाकै भरें भंडार, लक्ष्मी कोटि करैं सिंगार।
कोटि पाप पुंनि ब्यौहरै, इंद्र कोटि जाकी सेवा करें।
जगि कोटि जाकै दरबार, गंध्रप कोटि करै जैकार।
विद्या कोटि सबै गुण कहै, पारब्रह्म कौ पार न लहै॥
बासिग कोटि सेज बिसतरै, पवन कोटि चौबारे फिरै।
कोटि समुद्र जाकै पणिहारा, रोमावली अठारहु भारा॥
असंखि कोटि जाकै जमावली, रावण सेन्यां जाथैं चली॥
सहसवांह के हरे परांण, जरजोधन घाल्यौ खै मान।
बावन कोटि जाके कुटवाल, नगरी नगरी क्षेत्रापाल॥
लट छूटी खेलैं बिकराल, अनंत कला नटवर गोपाल।
कंद्रप कोटि जाकै लांवन करै, घट घट भीतरी मनसा हरै।
दास कबीर भजि सारंगपान, देह अभै पद मांगौ दान॥340॥

मन न डिगै ताथैं तन न डराई, केवल राम रहे ल्यौ लाई॥टेक॥
अति अथाह जल गहर गंभीर, बाँधि जँजीर जलि बोरे हैं कबीर।
जल की तरंग उठि कटि है जंजीर, हरि सुमिरन तट बैठे हैं कबीर॥
कहै कबीर मेरे संग न साथ, जल थल में राखै जगनाथ॥341॥

भलै नीदौ भलै नीदौ भले नीदौ लोग, तनौ मन राम पियारे जोग॥टेक॥
मैं बौरी मेरे राम भरतार, ता कारंनि रचि करौ स्यंगार।
जैसे धुबिवा रज मल धोवै, हर तप रत सब निंदक खोवै॥
न्यंदक मेरे माई बाप, जन्म जन्म के काटे पाप।
न्यंदक, मेरे प्रान अधार, बिन बेगारी चलावै भार॥
कहै कबीर न्यंदक बलिहारी, आप रहै जन पार उतारी॥342॥

जो मैं बौरा तौ राम तोरा, लोग मरम का जांनै मोरा॥टेक॥
माला तिलक पहरि मन मानां, लोगनि राम खिलौनां जांना।
थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भगता मिलै अपारा॥
लोग कहै कबीर बीराना, कबीरा कौ भरत रांम भल जाना॥343॥

हरिजन हंस दसा लिये डोलै, निर्मल नांव चवै जस बोलै॥टेक॥
मानसरोवर तट के बासी, राम चरन चित आंन उदासी।
मुकताहल बिन चंच न लावै, मौंनि गहे कै हरि गुन गांवै॥
कउवा कुबधि निकट नहीं आवै, सो हंसा निज दरसन पावै॥
कहै कबीर सोई जन तेरा, खीर नीर का करै नबेरा॥344॥

सति राम सतगुर की सेवा, पूजहु राम निरंजन देवा॥टेक॥
जल कै मंजन्य जो गति होई, मीनां नित ही न्हावै।
जैसा मींनां तैसा नरा, फिरि फिरि जोनी आवै॥
मन मैं मैला तीर्थ न्हावै, तिनि बैकुंठ न जांना।
पाखंङ करि करि जगत भुलांनां, नांहिन राम अयांनां॥
हिरदे कठोर मरै बनारसि, नरक न बंच्या जाई।
हरि कौ दास मरै जे मगहरि, सेन्यां सकल तिराई॥
पाठ पुरान बेद नहीं सुमिरत, तहाँ बसै निरकारा।
कहै कबीर एक ही ध्यावो, बावलिया संसारा॥345॥