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रात-भर न सो पाने के बाद / मरीना स्विताएवा
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रात-भर न सो पाने के बाद
शिथिल पड़ जाता है पूरा शरीर
प्रिय लगता है वह, न अपना न पराया-सा ।
धीमी धमनियों में अब भी खनकते हैं तीर,
देवदूतों की तरह हम मुस्करा देते हैं
लोगों को देखकर ।
रात-भर न सो पाने के बाद
एक-से लगते हैं मित्र और दुश्मन,
अचानक सुनी ध्वनि में पूरा होता है इन्द्रधनुष
और पाले में से फ़्लोरेंस की आती है महक ।
और अधिक चमकने लगते हैं कोमल होंठ
और अधिक सुनहली दिखती है
आँखों के पास झुकी छाया ।
यह उजला मुख आलोकित किया है रात ने
और आँखों में से झाँक रहा है रात का अंधकार ।
रचनाकाल : 19 जुलाई 1916
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह