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रात अँधेरी / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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रात अँधेरी, मैं बैठा हूँ सूने-सूने द्वार में!
कारे-कारे मेघ गरजते, भींग रहा बौछार में!

बूंदी की डुलियों पर चढ़ कर अनगिन सुधियाँ आ गई,
कुछ तो इनमें बहुत पुरानी औ’ कुछ बिलकुल ही नई;
एक हवा का झोंका तन का सौ वातायन खोलता,
खोया-खोया ध्यान अचानक चौंक-चौंक कर डोलता;

बनती-मिटती विद्युत-रेखा नभ पर बिखरी क्षार में!
बह-बह जाते हैं ये लोचन गलियारे की धार में!

खुल-खुल जाते होंठ, उसासों ने घेरा यह प्राण है,
दुबका-दुबका कण्ठ, कि जैसे एक न आता गान है;
जम से गये कपोलों पर कर, सोये-सोये पाँव हैं,
देखे-अनदेखे, मन को मिल रहे अनेकों गाँव हैं;

आज न आँसू शामिल होते पानी के त्योहार में!
छिपके-छिपके फिरते अपने पाहन के आगार में!

भींग गई अन्तर की सिजिया नींद न आए पीर को,
चुभ-चुभ जाती जब शीतलता कस-कस लेती चीर को;
कोने में हिल रही शिखा का अलसाया-सा गात है;
हल्कापन आता जाता है बरसाती झंकार में!
ऊँगली मार-मार देता कोई कलरब के तार में!