राधा! हम-तुम दोउ अभिन्न / हनुमानप्रसाद पोद्दार
राधा! हम-तुम दोउ अभिन्न।
बारि-बीचि, चंद्रमा-चाँदनी सम अभिन्न, नित भिन्न
नित्य सत्य सर्वदा सर्वथा रहूँ तुहारे संग।
आठौं पहर संग-सँग डोलूँ भर्यौ रहूँ अँग-अंग॥
मो बिनु तुहरी कछू न सा, तुम बिनु मैं नाचीज।
समुझि न परत रहस्य रंच हू, को तरुवर, को बीज॥
बिरह-मिलन दोउ रस हम दोउन के हैं लीला-साज।
एक नित्य रस बिबिध रूप धरि क्रीरड़त सहित समाज॥
नित्य, एक ही नित अनेक सजि करत बिचित्र बिहार।
नित अनादि, आरंभ न कबहूँ, कबहुँ न उपसंहार॥
बिछुरन-मिलन तुहारौ मेरौ, नित्य मिलन के माँहिं।
जा बिछुरनमें मिलन मनोहर, सो तो बिछुरन नाहिं॥
मेरे रस तें तुम रसमयि, मैं तुहरे रस रसवान।
एक स्व-रस कौं द्विविध भेद तें करैं नित्य हम पान॥
रस, रस-पान रसिक, रस-दाता-एक परम रसरूप।
परमाश्चर्य, अचिंत्य अनिर्वचनीय अगय अनूप॥
कबहुँ न कतहुँ तुहारौ-मेरौ पलक बिछोह-बियोग।
नित्य सत्य अनिवार्य अलौकिक अविच्छेद्य संयोग॥
प्रिये! न तोहि स्वरूप की विस्मृति, नहीं कबहुँ कछु खेद।
एक परम रस-सरिता के ही वे तरंगमय भेद॥
(दोहा)
दोनों आप्यायित भए, मिले दिय रस-रीति।
महाभाव-रसराज की अतुल अकल यह प्रीति॥