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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 1
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रामप्रेम ही सार है-1
(37)
सियराम-सरूपु अगाध अनूप बिलोचन-मीननको जलु है।
श्रुति रामकथ, मुख रामको नामु, हियँ पुनि रामहिको थलु है।।
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों रामहि को बलु है।
सबकी न कहै,तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है।।
(38)
दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरान प्रसिद्ध सुन्यो जसु मैं ।
नर नाग सुरासुर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं।
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं।।