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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 3
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रामप्रेम ही सार है-3
 (41)  
गजि -बाजि -घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै। 
धरनी, धनु धाम सरीरू भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुख स्वै।। 
सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछू  पनो  दिन  द्वै।।
जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ!  जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै।।
(42) 
सुरसाज सो राज-समाजु, समृद्धि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भो। 
पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु -सेा भवभूषनु भो।। 
करि जोग, समीरन साधि , समाधि कै धीर बड़ो , बसहू मनु भो। 
सब जाय, सुुभायँ कहै तुलसी, जो न जानकीजीवनको जनु भो।।
 
	
	