भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 7
Kavita Kosh से
रामप्रेम ही सार है-7
(49)
कृपाँ जिनकीं कछु काजु नहीं , न अकाजु कछु जिनकें मुखु मोरें।
करैं तिनकी परवाहि तें, जो बिनु पूँछ-बिषान फिरैं दिन दौरें।।
तुलसी जेहिके रघुनाथुसे नाथु, समर्थ सुसेवत रीझत थोरें।
कहा भवभीर परी तेहि धौं, बिचरै धरनीं तिनसों तिनु तोरें।।
(50)
कानन, भूधर, बारि,बयारि, महाबिषु, ब्याधि, दवा-अरि घेरे।।
संकट कोटि जहाँ ‘तुलसी’ , सुत, मातु, पिता, हित, बंधु न नेरे।
राखिहैं रामु कृपालु तहाँ, हनुमानु-से सेवक हैं जेहिं केरे।
नाक, रसातल, भूतलमें रघुनायकु एकु सहायकु मेरे।।