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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 9

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रामप्रेम ही सार है-9

 (53)

जहाँ हित स्वामि, न संग सखा, बनिता, सुत, बंधु , न बापु, न मैया।
 काय- गिरा-मनके जनके अपराध सबै छलु छाड़ि छमैया।

तुलसी! तेहि काल कृपाल बिना दुजो कौन है दारून दुःख दमैया। ।
 जहाँ सब संकट, दुर्घट सोचु, तहाँ मेरो साहेबु राखै रमैया।।

(54)

तापस को बरदायक देव सबै पुनि बैरू बढ़ावत बाढे़ं।
थोरेंहि कोपु, कृपा पुनि थोरेहिं , बैठि कै जोरत, तोरत ठाढ़ें ।

ठोंकि-बजाइ लखें गजराज, कहाँ लौं केहि सों रद काढें।
आरतके हित नाथु अनाथके रामु सहाय सही दिन गाढ़ें।।