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रुक जा ऐ जिन्दगी अभी तेरा इन्तेहाँ बाकी है / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
रुक जा ए ज़िन्दगी अभी तेरा इंतेहाँ बाकी है।
कुछ यहाँ बाकी है और कुछ वहाँ बाकी है।
वक्त-दर-वक्त साख टूटे दरख्त टूटे दिल टूटा,
टूटने को अभी तेरा दीवार-ओ-मकाँ बाकी है।
अभी तू बस हारा महाज-ए-जंग-ए-जिंदगी में,
लज्जते-शिकस्त लेने को दिलो जाँ बाकी है।
जमाने ने देखा है बस लग्जिश-ए-मस्ताना,
लड़खड़ाने को अभी शोखी-ए-जुबाँ बाकी है।
घर वर सोना वोना दिल विल सब लुट गया,
लुटने को शानो-सौकत इज्जतो-इमाँ बाकी है।
यार दोस्त अपने पराये राहो मँजिल सब छूटे,
छूटने को अभी आली दिल का गुमाँ बाकी है।
जिस्मे-मुसाफिर चिलचिलाती धूप में तड़पा,
तड़पने को अभी तेरा दिल-ए-तपाँ बाकी है।
महाजे-जंगे-जिंदगी-ज़िन्दगी के जंग का मैदान
लज्जते-शिकस्त-हार का स्वाद