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रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे / मेहर गेरा

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रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे

सोचता हूँ चल पडूँ अब उन जंज़ीरों की तरफ
जिनकी दिल-आवेज़ियों के तज़किरे होने लगे

ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतशार
लोग क्यों इक दूसरे से दूर अब होने लगे

भूलकर सब कुछ समेटे क्यों न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिक्वे गिले होने लगे।