भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
रुत बदलते ही हर इक सू मौजिज़े होने लगे
पेड़ थे जितने भी सूखे सब हरे होने लगे
सोचता हूँ चल पडूँ अब उन जंज़ीरों की तरफ
जिनकी दिल-आवेज़ियों के तज़किरे होने लगे
ये सफ़र में आ गया कैसा मुकामे-इंतशार
लोग क्यों इक दूसरे से दूर अब होने लगे
भूलकर सब कुछ समेटे क्यों न हम लम्हों का लम्स
ये भी क्या मिलते ही फिर शिक्वे गिले होने लगे।