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रोको इस आँधी को दीपक बुझे जा रहे हैं / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

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रोको रोको, अपराधी, अपराध गा रहे हैं।
रोको इस आँधी को दीपक बुझे जा रहे हैं।

कैसी बारूदी गंधों की हवा उड़ रही है?
कोमलता संगीन तले क्योंकर सिकुड़ रही है?
कौन बनेगा महावीर जो धम्म पढ़ाएगा?
कौन देवदत्त के तीरों से हंस बचाएगा?

परमशांति को क्यों अब कोलाहल भा रहे हैं?
रोको इस आँधी को दीपक बुझे जा रहे हैं।

लूट रहा है वक्त लाज, अब दुनियादारी की।
टूट पड़ा है वक्त भाग्य पर अल ओतारी की।
(टूट पड़ा है वक्त आज किस्मत पर ख्वारी की।)
नन्हे नन्हे पौंध अग्नि की भेंट चढ़ रहे हैं।
रोज नवल किसलय मज्जा से, अस्त्र मढ़ रहे हैं।

पावनता के हवनकुंड पर काल छा रहे हैं।
रोको इस आँधी को दीपक बुझे जा रहे हैं।

स्वत्व और अधिकार न जाने कहाँ खो गये हैं?
इन्कलाब, प्रतिकार न जाने कहाँ सो गये हैं?
मानवता बन कुंभकरण सोई है सोई रे।
विश्व शांति का लक्ष्य रह गया केवल गोई रे।

देखो जले फटे चिथड़ो को चील खा रहे हैं।
रोको इस आँधी को दीपक बुझे जा रहे हैं।