भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोने में इक ख़तरा है तालाब नदी हो जाते है / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोने में इक ख़तरा है, तालाब, नदी हो जाते हैं
हँसना भी आसान नहीं है, लब ज़ख़्मी हो जाते हैं

स्टेशन से वापस आकर बूढ़ी आँखे सोचती हैं
पत्ते देहाती होते हैं, फल शहरी हो जाते हैं

गाँव के भोले-भाले वासी, आज तलक ये कहते हैं
हम तो न लेंगे जान किसी की, राम दुखी हो जाते हैं

सब से हंस कर मिलिए-जुलिए, लेकिन इतना ध्यान रहे
सबसे हंस कर मिलने वाले, रुसवा भी हो जाते हैं

अपनी अना को बेच के अक्सर लुक़मा-ए-तर की चाहत में
कैसे-कैसे सच्चे शायर दरबारी हो जाते हैं