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रौशनी के नग़मे थे जुगनुओं के होठों पर / पुष्पराज यादव

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रौशनी के नग़मे थे जुगनुओं के होठों पर
और आह पसरी थी बिजलियों के होठों पर

शाम से नगर भर की सुर्ख़ियों में छाया है
जिसका नाम आया था पागलों के होठों पर

हर्फ-हर्फ कट-कट के मिट रहा हूँ मैं आख़िर
कौन लिख गया मुझको साहिलों के होठों पर

रातभर यही करतब मेरी आँखों ने देखा
तेरा नाम आता था झपकियों के होठों पर

शायद आज फूलों को चूमकर ही आई थीं
ख़ुश्बुओं-सी ख़ुश्बू थी तितलियों के होठों पर

इस तरह तो लगता है हम भी डर ही जायेगे
जिस तरह की वहशत है रहबरों के होठों पर

फिर हसीं कोई सपना कैसे पल सके इनमें
नीदें जब न लिक्खी हों पुतलियों के होठों पर