लंबी कविता / इंदुशेखर तत्पुरुष
चिपचिपी शाम प्लेटफार्म पर
प्रतीक्षारत व्याकुल
हम दोनों
और दूर से चीखती धड़धड़ाती आती ट्रेन
जिसके रुकते ही एक ठसाठस भरे डिब्बे में
भीड़ के धक्कों से बचते-बचाते
मैं ठूंस देता हूं तुमको
और पकड़ाता हूं ताबड़तोड़
एक बड़ा बक्सा, दो सूटकेस
एक कनस्तर रस्सी से बंधा मजबूत
कट्टा पलास्टिक का, बिस्तर बंद, तीन थैले
फिर एक बड़ा थैला
और आखिर में रह जाती मेरे हाथों में झूलती
पानी की केतली
अरे! यह तो खाली हैं... बिल्कुल खाली
कितनी भीड़ उफ्! प्लेटफार्म के नल पर
अपनी बोतलों, डिब्बों, केतलियों को
भीड़ में फंसाते
ओक लगाये जूझते तसाये लोगों से घिरी
नल की अकेली क्षीणधार टोंटी
झाबझोब इस भीड़ की परिधि पर
खड़ा हूं मैं भी अपनी
खाली केतली लटकाये
कि आगे खड़ी एक बुढ़िया गश खाकर
गिर ही जाती थी धम्म् से प्लेटफार्म के
पंकिल लिसलिसे फर्श पर
शुक्र है बच गयी मेरे केतली उठाये
उदग्र बाहुओं में झूलकर।
मैं व्यग्रता से चिल्ला पड़ता हूं
अरे! कोई है? ... कोई है भई इसके साथ... ?
अरे, कोई संभालो... इसे...
मेरी ट्रेन...
कान के पर्दे फाड़कर ब्रह्मरंध में धंसती हुई
तीखी सीटी घनघना उठती है ट्रेन की
कि झनझना उठता है मेरा समूचा अस्तित्व
दौड़ पड़ता मैं हड़बड़ाकर
बोतल कहीं छूट गई
चप्पल भी हड़बड़ी में दाहिने पैर की
दौड़ता हूं, दौड़ती ट्रेन के पीछे
बदहवास तेज और तेज
रीते हाथ-नंगे पांव
छूट गई बोतल, छूट गई चप्पल
छूटती जा रही ट्रेन
छूटती जा रही तुम
दौड़ती जा रही ट्रेन के दरवाजे से
हाथ क्या पूरी देह को बाहर झुलाकर
मुझको पुकारती हुई
एक झलक भर दिखती
हो गई ओझल तुम
ओझल होती ट्रेन के साथ
मेरी मुट्ठी में चिड़िया के टूट हुए
निष्प्राण दो पंख अचकचाते हैं
मुट्ठी खोलकर देखता हूं
यात्रा के टिकट
एक परकटी चिड़िया मेरे अन्दर
तड़प उठती है और तुम्हारी
भयकातर डबडबायी आंखें
घूम जाती है मेरी आँखों के आगे
और दौड़ने लगता हूं समूची प्राणोर्जा के साथ
अदृश्य ट्रेन के पीछे।
छोटे रास्ते के फेर में
झाड़-झंकाड़, रेतीले-पथरीले रास्ते, जंगल
खंडहर होती डौळियां लांघता-फांदता
अरे! यह कहां आ भटका?
कि दुर्निवार किसी अज्ञातशक्ति ने
दौड़ाते-दौड़ाते ये कहां ला पटका!
अरे! ये बच्चे ही बच्चे
अपने गुलाबी हाथों में रंग-बिरंगे गुब्बारे
तीरकमान, हवाई जहाज, फिरकनी, पपैये
चाभीदार हाथी-घोड़े लिए
पुलक-पुलक घूम रहे
लोग घूम रहे
अपनी सजी-संवरी पत्नियों को साथ लिए
खूब तेल डालकर मांग काढ़े हुए नौनिहाल
जिनकी नन्हीं अंगुलियों की सख्त ग़ुंजलक में
कसी है बिछुड़नवर्जनी-माताओं की तर्जनी
और जिनके ललाट की बायीं भौंह के ऊपर
अंकित है कुदृष्टिनिवारक कृष्ण-बिन्दु
शामिल हो रहे विद्युतचालित
चकरी-रहटक-झूलों पर
हाथों के सारे काम पैर से करने वाली
लड़की के करतब देखने
एक-दूसरे को ठेलते-धकियाते मसखरी करते
नौजवानों के झुण्ड जिनके कंधों पर
शान से सजे हुए है लंबे रोएंदार तौलिये
रसिया और कन्हैया गाते हुए
हुमक-हुमक झूम रहे
झूम-झूम घूम रहे
खूब जानी पहचानी जगह
खूब जानी पहचानी
धुंधली स्मृतियों की खोह में
खोजते-खंगालते
याद आता अचानक
वर्षों पहले देखे कल्याणजी के मेले का दृश्य
जो भरता है प्रतिवर्ष वैशाख पूर्णमासी को
दुकानें ही दुकानें
चाट पकौड़ी, आइसक्रीम, गन्ने के रस की
खिलौने-तमंचों की
रंग-बिरंगे नगीनों की सस्ती अंगूठियां
कंगन, बिछूए, चूड़ियों की दुकान
जिनके आगे सजी है ढेरियां हिंगुल, सिंदूर की
अचानक पैर के नीचे काट गया हो बिच्छू
फेंकी हुई सिगरेट का ज्वलंत रुण्ड
चिपक जाता है तलवे में
कि चटक-सी उठती है तालुए में
चमकती-दमकती दुकानों की कतारें
मगर प्याऊ कहीं नहीं दिखती
गला सूखता जा रहा है
और मैं ढूंढता हूं पानी
कहां है पानी?
कहां गई प्याऊ?
कि स्मृति पटल पर उभर आती है एक बूढ़ी औरत
प्लास्टिक की दो बदरंग सी चूड़ियां पहने
झुर्रियों भरे हाथ में थामे रामझारा
पिलाते हुए पानी-अनवरत
मेले के दिन से ही खुल जाती थी प्याऊ
जिस पर टंगा होता था बैनर दूधिया लट्ठे का
लिखा नीले रंग से
‘‘कल्याण सेवा समिति के सौजन्य से’’
ओह! अब, कहीं बची भी होगी ‘कल्याण सेवा समिति’
पंजीयक सहकारिता विभाग की
पुरानी पत्रावलियों में भले ही
यहां कहां बचे हैं सुजन?
जो बचता ‘सौजन्य’, कल्याणजी के मेले में
कहां गये स्काउट ड्रेस पहिने नौनिहाल
जिनके गले में कसे होते आसमानी स्कार्फ
नीली कमीज पर
कहा गई होगी वह बुढ़िया अब
कहीं मर-खप तो नहीं गई?
अरे! यह क्या?
मुझे अवाक् करती दिखती
एक झलक परिचित-सी
सामने दुकान में
वही बिल्कुल, वही
बैठी एक स्टाल पर
एक विश्वविख्यात शीतलपेय के
विज्ञापन बोर्ड से सज्जित
कोल्ड ड्रिंक्स सेन्टर पर आसन जमाए
व्यस्त वह बुढ़िया अब
पहले से जवान लग रही
पोपले मुख में भर आयी बत्तीसी
चमक-चामत्कारिक हर्बलों-रसायनों की
कि दमक, चलती दुकान की
दिखती नहीं झुर्रियां
असंभव था अब उसे बुढ़िया कहना
एक डरावनी सुन्दरता कर रही व्यापार
प्यास से पपड़ाये ओठों
और सूखते कंठों को तर करने का
कल्याणजी के मेले में।
कौंध जाता स्वर वाल्मीकीय सुन्दरकाण्ड का
श्लोक पढ़ते पिताजी का
‘श्मशानचैत्यप्रतिमो भूषितोऽपि भयंकरः।’
लौट आए हैं पिताजी अभी-अभी परदेस से
घर भर की रौनक
लौट आई बरसों बाद
होती प्रतिबिम्बित
मां के धुंधलाए दर्पण से चेहरे पर
खुशी से पैर नहीं पड़ते धरती पर
हम बहिन-भाइयों के
लगा आते फेरी मुहल्ले के घर-घर की
‘आए हैं पिताजी।’
रुकेंगे अब खूब दिन। रुकेंगे खूब दिन!
अचानक तुम्हारी स्मृति उभर आती है
कहां ले आये ये रास्ते मुझको
इस तरह भटकाते-भरमाते
कहां तलक पहुंची होगी वह ट्रेन
कहां हो तुम?
घबराहट में प्राण एक बार फिर,
प्यास के साथ गड्डमड्ड होकर
अटक जाते हैं कंठ में
पसीनों से तर-ब-तर अपना ललाट
पोंछता, उठ बैठता हूं मैं एकाएक बिस्तर पर।
गहरी रात के निस्तब्ध सन्नाटे में
तुम जो इस क्षण मेरे बिल्कुल करीब
डूबी हुई हो गहन निद्रा में, निश्चिंत
तुमने स्वप्न में भी कहां सोचा होगा
कि मैं किन भयानक रास्तों से गुजरकर
लौटा हूं, अभी-अभी तुम्हारे पार्श्व में।
तुम्हारे ईषत् विवृत ओठों के बीच
दिखती दंतावली की कोर
जो इस नीली मद्धिम रोशनी में
चमक रही है
मेरी घबराहट कम नहीं कर पा रही
तुमको खो देने की यंत्रणा
तुम्हारी जीती-जागती मौजूदगी पर
भारी पड़ रही है, अभी तक मेरे शरीर में
झुरझुरी बनकर छायी हुई है।
तुम्हें खोज पाने के पहले
टूट जाता है स्वप्न
गहरे तक तोड़ते हुए मुझको।
लाख जतन करके भी
नहीं कर पाता उस स्वप्न को पूरा
फिर से उसी जगह से
जहां मैं अधूरा छूट गया था।