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लगे हमको वे पराये / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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हम शहर के द्वार से ही लौट आये
 
क्योंकि उस पिछड़े नगर में
लोग अब भी हँस रहे हैं
और कुछ चिंतक पुराने
वहाँ अब भी बस रहे हैं
 
वहीं सपने भी दिखे थे जंग-खाये
 
वही सपने जो हमें
पिछले दिनों से जोड़ते हैं
वहाँ तो बस
पीढ़ियों तक चले
रिश्तों के पते हैं
 
नदी है जिसमें कभी थे प्रभु समाये
 
उस नगर में हैं पड़ोसी
हाँ, पुजारी औ' मुअज्जिन
और पूरे साल रहते हैं वहाँ
त्यौहार के दिन
 
लोग खुश हैं - लगे हमको वे पराये