भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लगे हमको वे पराये / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
हम शहर के द्वार से ही लौट आये
क्योंकि उस पिछड़े नगर में
लोग अब भी हँस रहे हैं
और कुछ चिंतक पुराने
वहाँ अब भी बस रहे हैं
वहीं सपने भी दिखे थे जंग-खाये
वही सपने जो हमें
पिछले दिनों से जोड़ते हैं
वहाँ तो बस
पीढ़ियों तक चले
रिश्तों के पते हैं
नदी है जिसमें कभी थे प्रभु समाये
उस नगर में हैं पड़ोसी
हाँ, पुजारी औ' मुअज्जिन
और पूरे साल रहते हैं वहाँ
त्यौहार के दिन
लोग खुश हैं - लगे हमको वे पराये