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लब तरसने लगे हैं हँसी के लिए / अज़ीज़ आज़ाद
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लब तरसने लगे हैं हँसी के लिए
कैसी लानत है ये इस सदी के लिए
आदमी आदमी से रहे अजनबी
लोग ज़िन्दा हैं फिर किस ख़ुशी के लिए
हर सुब्ह है सिसकती हुई शाम-सी
रूह बेचैन है रोशनी के लिए
अब तो सूरज निकलता है जैसे कोई
ग़मज़दा चल दिया ख़ुदकुशी के लिए
हम मुहब्बत के क़ाबिल नहीं न सही
इक बहाना सही दिल्लगी के लिए
ऐसी दुनिया में जीना है गर ऐ ‘अज़ीज़’
प्यार लाज़िम है इस ज़िन्दगी के लिए