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लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका / 'अनवर' साबरी
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लब पे काँटों के है फ़रियाद-ओ-बुका मेरे बाद
कोई आया ही नहीं आबला-पा मेरे बाद
मेरे दम तक ही रहा रब्त-ए-नसीम ओ रुख़-ए-गुल
निकहत-आमेज़ नहीं मौज-ए-सबा मेरे बाद
अब न वो रंग-ए-जबीं है न बहार-ए-आरिज़
लाला-रूयों का अजब हाल हुआ मेरे बाद
चंद सूखे हुए पत्ते हैं चमन में रक़्साँ
हाए बेगानगी-ए-आब-ओ-हवा मेरे बाद
मुँह धुलाती नहीं ग़ुँचों का उरूस-ए-शबनम
गर्द-आलूद है कलियों की क़बा मेरे बाद
आदमिय्यत-शिकनी भी तो नहीं कम 'अनवर'
डर है कुछ और न हो इस के सिवा मेरे बाद