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लाज की यह बात / रामगोपाल 'रुद्र'

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लाज की यह बात मैं कैसे छिपाऊँ?
जानता संसार मैं क्या हूँ, कहाँ हूँ!

हो रहे तुम आज घर-बाहर उजागर,
दिप रहे कलधौत आभा से, धरा पर;
मैं तुम्हारी लाज दीप-तले अँधेरा
पास भी हूँ दूर, ख़ुद आँखें चुराकर;
दो मुझे आलोक, या, ऐसे छिपा लो
दृष्टि दुनिया की न जाय, मैं जहाँ हूँ!


मौन हैं मधु-कुंज ये हिम-हार कैसे!
स्तब्ध तारक-पुंज ये अंगार कैसे!
छेड़ निशि का राग, धुन पर 'पी कहाँ' की
साधते तुम सिंधु पर स्वर-तार कैसे!
रास-राजित श्री-शिखर पर, शशि! न भूलो,
छाँह में छविहीन छाया मैं यहाँ हूँ!