भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लाल चोंच वाले पंछी(कविता) / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
नवंबर के ढलते दिन की
सर्दियों की कोख से
चले आते हैं ये पंछी
शुरु हो जाती है जब धन की कटनी
वे नदी किनारे आलाप भर रहे होते हैं
लाल चोंच वाला उनका रंग
अटक गया है बबूल की पत्ती पर
सांझ उतरते ही
वे दौड़ते हैं आकाश की ओर
उनकी चिल्लाहट से
गूंज उठता है बधर
और लाल रंग उड़कर चला आता है
हमारे सूख चुके कपड़ों में
चुन रहे खेतों की बालियां
तैरते हुए पानी की तेज धर में
पहचान चुके होते हैं अनचिन्ही पगडंडियां
स्याह होता गांव
और सतफोड़वा पोखरे का मिठास भरा पानी
चमकती हैं उनकी चोंच
जैसे दहक रहा हो टेसू का जंगल
मानो ललाई ले रहा हो पूरब का भाल
झुटपुटा छाते ही जैसे
चिड़ीदह में पंछियों के
टूट पड़ते ही
लाल रंगों के रेले से उमड़ आता है घोसला।