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लाश अपनी ही उठाए चल रहा हूँ आज भी / बाबा बैद्यनाथ झा

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लाश अपनी ही उठाए चल रहा हूँ आज भी
उन रक़ीबों को भला क्यों खल रहा हूँ आज भी

भोगता हूँ सब दुखों को जानकर प्रारब्ध है
रोग निर्धनता लिए ही पल रहा हूँ आज भी

दोस्त कहते अब बदल जा भूल जा ईमान को
लाख साँचें दीखते, ना ढल रहा हूँ आज भी

आफ़तें आती रहेंगी मैं झुकूँगा ही नहीं
जानते हैं लोग जैसे कल रहा हूँ आज भी

सामने से दे चुनौती वक्त ठोके ताल भी
मुश्किलों की आँच में ही जल रहा हूँ आज भी

ज़िन्दगी तो है समर्पित लेखनी अध्यात्म में
मंजिलें हैं दूर तो निष्फल रहा हूँ आज भी

कृष्ण सेवा हो न पायी थी अपेक्षा जिस तरह
बस यही चिन्ता समेटे गल रहा हूँ आज भी

कौन ‘बाबा’ को कहेगा है बुरा यह आदमी
पर प्रपंची जाल मुझको छल रहा है आज भी