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लुटेरे / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
अब कभी नजर नहीं आते
भयानक पहले की तरह लुटेरे
काले घोड़े पर आरूढ़
और आग बरसाती हुई आंखें
वे पफैल गये हैं नेनुआं की लताओं-सी
हमारी कोशिकाओं में
नहीं दिखती उनके हाथों में कोई नंगी तलवार
कड़ाके की आवाज
कहीं खो गई है शायद इतिहास के पन्ने में
लुटेरे चले आते हैं चुपके
लदे बस्ते में बच्चों की पीठ पर
घुसपैठ करते हैं
चाय की घूंट के साथ हमारे भीतर-और-भीतर
इनसे अब कोई नहीं डरता
मुसीबत में भी
ये हमारे दोस्त बन रहे होते हैं
सुखद होता है कितना दिखना इनके साथ
इनके साथ हाथ मिलाना
होता है आत्मीयता का परिचायक
लुटेरे सड़कों पर नहीं दिखते
सुनाई नहीं दे रही
उनके घोड़े की कहीं टाप
वे उतर आये हैं हमारे चेहरे पर
जब सुबह की ताजी हवा
सरसराने को होती..।