भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लोग धतूरा खाए बिन ही / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
भाई, मानें
इसी घाट पर तुलसी बाबा थे आये
जहाँ नाव आकर है ठहरी
अभी-अभी
भीड़ लगी थी संतों
कल वहीँ कभी
उतर रहे हैं
देखो, अगले युग के सपने हरजाये
उधर नदी पर जो मसान है
भीड़ वहीँ
इधर जले बरगद पर
अब है नीड़ नहीं
युग ऐसा है
लोग धतूरा खाए बिन ही बौराये
इसी गली में रहते थे
गौरी-गौरा
उजड़ चूका बरसों पहले
कबिरा-चौरा
'ईलू-ईलू' करती पीढ़ी
इसे कौन अब समझाये