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लौटते हुए / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
लो—
सब कुछ जहाँ-तहाँ रख कर
लौटा दिए हम
देखेंगे पीछे मुड़ कर कभी
गढ़े हुए अपने परचम
हर छोटी चीज़ की तरह
खोजा है एक-एक पल
फिर ऐसे रख दिया
सँभाल कर
शीशी में ज्यों गंगाजल
जो कुछ भी था
उसे सहेज कर
बाँध कर किवाड़ों से
नियम-उपनियम
लौट दिए हम
हर सीढ़ी—
टूटी चूड़ी लगी
तलवे में काटने लगी
चौखट की दृष्टि अनमनी
मुझको दो हिस्सों में
बाँटने लगी
ले अपनी
कटी-फटी ज़िन्दगी
तिखने रख शरम के वहम
लौट दिए हम