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वक़्त बहे गंदी नाली सा / अश्वनी शर्मा

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वक्त बहे गंदी नाली सा
जीना है रस्मी ताली सा।

भीड़ बढ़ी शहरों में लेकिन
वक्त लगे खाली-खाली सा।

कितनी दुआ, मन्नतें कितनी
जीना लगे मगर गाली सा।

रात नशीली, छत का कोना
चांद लगे खाली थाली सा।

दिन का ख़ून कलम से निकला
उनको लगे मगर जाली सा।

मय, मयख़ाना साकी भी है
तौर मगर उल्टी प्याली सा।

खूब खंगाला, पाया, जीना
गेहूं की कच्ची बाली सा।