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वह बात जो विदा के समय / गुलाब खंडेलवाल

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वह बात जो विदा के समय
एक अनाम दृष्टि कह गयी,
वह बात अंत तक मेरी चेतना में
फँसी रह गयी!
जैसे माला के धागे में कोई गाँठ पड़ जाये,
उँगली जब भी फिरे, मनका वहीं अड़ जाये;
जैसे कोई तितली हिम-शिला के बीच जम गयी हो,
जैसे कोई पायल की झंकार पास आते-आते थम गयी हो;
मैंने कितना भी कहना चाहा, ओ रहस्यमयि!
एक बार तो मन की गाँठ खोल दे,
एक बार तो यह हिम-शिला पिघला दे,
एक बार तो हँसकर कुछ बोल दे!
पर मेरी कल्पना के महल
बनने से पूर्व ही ढह गए,
और तुम्हारी अनाम दृष्टि के संकेत
अंत तक अनखुले ही रह गये.