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वह लेटी है तरु छाया में / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
छाया?
वह लेटी है तरु-छाया में
सन्ध्या-विहार को आया मैं।
मृदु बाँह मोड़, उपधान किए,
ज्यों प्रेम-लालसा पान किए;
उभरे उरोज, कुन्तल खोले,
एकाकिनि, कोई क्या बोले?
वह सुन्दर है, साँवली सही,
तरुणी है--हो षोड़षी रही;
विवसना, लता-सी तन्वंगिनि,
निर्जन में क्षण भर की संगिनि!
वह जागी है अथवा सोई?
मूर्छित या स्वप्न-मूढ़ कोई?
नारी कि अप्सरा या माया?
अथवा केवल तरु की छाया?
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५