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वह शख़्स लगे है मुझे अनजान अभी तक / सिया सचदेव

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वह शख़्स लगे है मुझे अनजान अभी तक
उससे है कुछ अधूरी सी पहचान अभी तक

है आज भी आँखों में मेरी अश्क़ की दौलत
उतरे ही नहीं आपके एहसान अभी तक

ख़ुद भूखे हैं पंछी को खिलाते हैं वो दाना
दुनिया में कुछ ऐसे भी हैं इन्सान अभी तक

माना के हमेशा से मेरी जेब है ख़ाली
रक्खा है बचा कर मगर ईमान अभी तक

है उस को ख़बर नेकी ही काम आएगी इक दिन
क्यूँ नेकी से बचता है यह इंसान अभी तक

कुछ शिकवे तो कुछ बीते हुए वक़्त की यादें
है पास तेरे मेरा यह सामान अभी तक

आया था बहुत पहले जो इस दिल के मकां में
मुद्दत से सिया है वो ही मेहमान अभी तक