भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वह शख़्स लगे है मुझे अनजान अभी तक / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
वह शख़्स लगे है मुझे अनजान अभी तक
उससे है कुछ अधूरी सी पहचान अभी तक
है आज भी आँखों में मेरी अश्क़ की दौलत
उतरे ही नहीं आपके एहसान अभी तक
ख़ुद भूखे हैं पंछी को खिलाते हैं वो दाना
दुनिया में कुछ ऐसे भी हैं इन्सान अभी तक
माना के हमेशा से मेरी जेब है ख़ाली
रक्खा है बचा कर मगर ईमान अभी तक
है उस को ख़बर नेकी ही काम आएगी इक दिन
क्यूँ नेकी से बचता है यह इंसान अभी तक
कुछ शिकवे तो कुछ बीते हुए वक़्त की यादें
है पास तेरे मेरा यह सामान अभी तक
आया था बहुत पहले जो इस दिल के मकां में
मुद्दत से सिया है वो ही मेहमान अभी तक