भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विक्रेता-अश्रु हँसी के / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शव के साथ-साथ तो चलने
वाले लोग हजारों होंगे;
किंतु अंत तक संग-साथ में
चलने वाला एक न होगा।

चली आ रही यह परिपाटी-
जब होगा सोना तन माटी;
लिटा जमीं पर देंगे मुझको
छुड़ा हाथ की लेंगे लाठी।
गोदी में हूँगा भू-माँ की
छूट जायँगे रिश्ते बाकी।

रोते कंधों पर ले चलने
वाले लोग हजारों होंगे;
किंतु गोद में उठा मुझे
ले चलने वाला एक न होगा।1।

ढेरी होगी जब कि भस्म की
बात खत्म जब रीति-रस्म की;
मरघट पर ही जब कि समाधि
बनेगी मेरी स्वर-सरगम की।
जब कि गान पूरा होगा यह
मौन तानपूरा होगा यह,

उस समाधि पर फूल चढ़ाने
वाल लोग हजारों होंगे;
किंतु समाधि लगा कर पास
बैठने वाला एक न होगा।2।

युग है यह अभिनेताओं का
अश्रु-हँसी-विक्रेताओं का;
गया जमाना दूर पुराना
सतयुग-द्वापर-त्रेताओं का।
बहुत हुआ तो चौराहे पर
मूर्ति रूप में मुझे खड़ा कर

चित्र और चलचित्र खींचने
वाले लोग हजारों होंगे;
पर परदे पर हुए प्रदर्शन
की समाप्ति पर एक न होगा।3।

दुनिया की बस यही रीति है
प्रीति दिखावे की प्रतीति है;
‘चला गया, आदमी भला था’
कहने की बन गई नीति है।
अर्पित होंगी पुष्पांजलियाँ
लदी विशेषण श्रद्धांजलियाँ,

मौन शौक प्रस्ताव पास-
करने को लोग हजारों होंगे;
पर प्रस्ताव सजल नयनों से
लिखने वाला एक न होगा।4।

कितने बड़े दिखावे में पल
रही आज मनु की यह पीढ़ी;
कहने को तो चढ़ आई है
वह विकास की ऊँची सीढ़ी।
आज मुखौटी संस्कृति का युग
आज अश्रु, कल विस्मृति का युग।

मेरे स्मारक के उद्घाटन
पर तो लोग हजारों होंगे;
फिर दीपक तक वहाँ जलाने
वाला कोई एक न होगा।5।

2.2.91