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विनयावली / तुलसीदास / पद 131 से 140 तक / पृष्ठ 12

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पद (139) से (140) तक

(139)
दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है।1।

प्रभुके बचन, बेद-बुध-सम्मत,‘मम मूरति महिदेवमई है’।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है।2।

राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है।3।

आश्रम-बरन -धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है। 4।

सांति , सत्य, सुभ , रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है।
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है।5।

परमारथ स्वारथ, साधन भय अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है।6।

कलि -करनी बरनिये कहाँ लौं, करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है।7।

त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।।
सरूष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है।8।

दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है।
भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है।9।

बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करूना -बारि भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है।10।

समरथ बड़ो सुजान सुसाहब , सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है।11।

उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है।12।
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ते नर नरककरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।
निसिबासर रूचिपाप असुचिमन, खलपति -मलिन, निगमपथ-त्यागी।1।

नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्त्रवन न राम-कथा -अनुरागी।
सुत-बित-भवन-ममता-निसि सोवत अति , न कबहुँ मति जागी।2।

तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि,सठ हठि पियत बिषय -बिष माँगी।
सूकर-स्वान-सृगाल-सरिस जन, जनमत जगत जननि -दुख लागी।3।