भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विनयावली / तुलसीदास / पद 41 से 50 तक / पृष्ठ 4

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पद 47 से 48 तक



(47)
 
ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन।
हरन दुखदुंद गोबिेंद आनन्दघन।।

अचरचर रूप हरि, सरबगत, सरबदा बसत, इति बासना धूप दीजै।
दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, प्रौढ़ अभिमान चितबृत्ति छीजै।।

भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी।
प्रेम तांबूल गत शूल संशय सकल, विपुल भव-बासना-बीजहारी।।

अशुभ-शुभकर्म-घृतपुर्ण दशवर्तिका, त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं।
भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली, अर्पि नीराजनं जगनिवासं।।

बिमल हृदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ, शयन विश्राम श्रीरामराया।
क्षमा-करूणा प्रमुख तत्र परिचारिका, यत्र हरि तत्र नहिं भेद-माया।।

एहि आरती-निरत सनकादि, श्रुति , शेष, शिव, देवारिषि, अखिलमुनि तत्व-दरसी।
करै सोइ तरै, परिहरै कामादि मल, वदति इति अमलमति-दास तुलसी।।


(48),
हरति सब आरती आरती रामकी।
दहन दुख-दोष , निरमूलिनी कामकी।1।

सुरभ सौरभ धूप दीपबर मालिका।
 उड़त अघ-बिहँग सुनि ताल करतालिका।2।

 भक्त-हदि-भवन, अज्ञान -तम-हारिनी।
बिमल बिग्यानमय तेेज-बिस्तारिनी।3।

मोह-मद-कोह-कलि-कंज-हिमजामिनी।
 मुक्तिकी दूतिका, देह-दुति दामिनी।4।

प्रनत-जन-कुमुद-बन-इंदु-कर-जालिका।
तुलसी के अभिमान -महिषेस बहु कालिका।5।