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वियोग-शृंगार / रस प्रबोध / रसलीन

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वियोग-शृंगार
उदाहरण

इत लखियत यह तिय नहीं उत लखियत नहि पीय।
आपुस माँहि दुहून मिलि पलटि लहै हैं जीय॥951॥

बियोग-शृंगार-भेद

पुनि वियोग सिंगार हूँ दीन्हौं है समुझाइ।
ताही को इन चारि बिधि बरनत हैं कबिराइ॥952॥
इक पूरुब अनुराग अरु दूजो मान विसेखि।
तीजो है परवास अरु चौथो करुना लेखि॥953॥

पूर्वानुराग-लक्षण

जो पहिलै सुनि कै निरख बढ़ै प्रेम की लाग।
बिनु मिलाप जिय विकलता सो पूरुब अनुराग॥954॥

उदाहरण

होइ पीर जो अंग की कहिये सबै सुनाइ।
उपजी पीर अनंग की कही कौन बिधि जाइ॥955॥

पूर्वानुराग मध्य
सुरतानुराग-उदाहरण

जाहि बात सुनि कै भई तन मन की गति आन।
ताहि दिखाये कामिनी क्यौं रहि है मो प्रान॥956॥

पूर्वानुराग मध्य
वृष्ठानुराग-उदाहरण

आप ही लाग लगाइ दृग फिरि रोवति यहि भाइ।
जैसे आगि लगाइ कोउ जल छिरकत है आइ॥957॥
हिये मटुकिया माहि मथि दीठि रई सो ग्वारि।
मो मन माखन लै गई देह दही सो डारि॥958॥

मान में लघुमान उपजने का
उदाहरण

और बाल को नाउ जो लयो भूलि कै नाह।
सो अति ही विष ब्याल सौं छलो बाल हिय माह॥959॥

मध्यमान-उदाहरण

पिय सोहन सोहन भई भुवरिस धनुष उतारि।
रस कृपान मारन लगी हँसि कटाछ सो नारि॥960॥

गुरुमान-उदाहरण

पिय दृग अरुन चितै भई यह तिय की गति आइ।
कमल अरुनता लखि मनों ससि दुति घटै बनाइ॥961॥
लहि मूँगा छवि दृग मुरनि यह मन लह्यौ प्रतच्छ।
नख लाये तिय अनखइ पियनख छाये पच्छ॥962॥

गुरमान छूटने का उपाय

स्याम जो मान छोड़ाइये समता को समुझाइ।
जो मनाइये दै कछू सो है दान उपाइ॥963॥
सुख दै सकल सखीन को करिके आपनि ओरि।
बहुरि छुड़ावै मान सो भेद जानि सब ठौरि॥964॥
मान मोचावन बान तजि कहै और परसंग।
सोइ उत्प्रेक्षा जानिये बरनन बुद्धि उतंग॥965॥
उपजै जिहि सुनि भावभ्रम कहिये यहि बिधि बात।
सो प्रसंग बिध्वंस है बरनत बुधि अविदात॥966॥
जो अपने अपराध सो रूसी तिय को पाइ।
पाँइ परे तेहि कहत है कविजन प्रनत उपाइ॥967॥

सामोपाय-उदाहरण

हम तुम दोऊ एक हैं समुझि लेहु मन माँहि।
मान भेद को मूल है भूलि कीजिये नाहि॥968॥

दानोपाय-उदाहरण

इन काहू सेयो नहीं पाय सेयती नाम।
आजु भाल बनि चहत तुव कुच सिव सेयो बाम॥969॥
पठये है निजु करन गुहि लाल मालती फूल।
जिहि लहि तुव हिय कमल तें कढ़ै मान अति तूल॥970॥

भेदोपाय-उदाहरण

लालन मिलि दै हितुन मुख दहियै सौतिन प्रान।
उलटी करै निदान जनि करि पीतम सो मान॥971॥
रोस अगिन की अनल तें तूँ जनि जारे नाँह।
तिहि तरुवर दहियत नहीं रहियत जाकी छाँह॥972॥

उत्प्रेक्षा उपाय-उदाहरण

बेलि चली बिटपन मिली चपला घन तन माँहि।
कोऊ नहि छिति गगन मैं तिया रही तजि नाँहि॥973॥

प्रसंग विध्वंस-उदाहरण

कहत पुरान जो रैनि को बितबति हैं करि मान।
ते सब चकई होहिगी अगिले जनम निदान॥974॥

प्रनत उपाय-उदाहरण

पिय तिय के पायन परत लागतु यहि अनुमानु।
निज मित्रन के मिलन को मानौ आयउ भानु॥975॥
पाँव गहत यौं मान तिय मन ते निकल्यो हाल।
नील गहति ज्यौं कोटि के निकसि जात कोतवाल॥976॥

अंगमान छूटने की बिधि

देस काल बुद्धि बचन पुनि कोमल धुनि सुनि कान।
औरो उद्दीपन लहै सुख ही छूटत मान॥977॥

प्रवास बिरह-लक्षण

त्रितिय बियोग प्रबास जो पिय प्यारी द्वै देस।
जामे नेकु सुहात नहि उद्दीपन को लेस॥978॥

उदाहरण

नेह भरे हिय मैं परी अगिनि बिरह की आइ।
साँस पवन की पाइ कै करिहै कौन बलाइ॥979॥
सिवौ मनावन को गई बिरिहिनि पुहुप मँगाइ।
परसत पुहुप भसम भए तब दै सिवहिं चढ़ाइ॥980॥

करुना बिरह-लक्षण

सिव जारîौ जब काम तब रति किय अधिक विलापु।
जिहिं बिलाप महँ तिनि सुनी यह धुनि नभ ते आपु॥981॥
द्वापर में जब होइगो आनि कृष्ण अवतार।
तिनके सुत को रूप धरि मिलि है तुव भरतार॥982॥
यह सुनि कै जो बिरह दुख रति को भयो प्रकास।
सोई करुना बिरह सब जानैं बुद्धि निवास॥983॥
पुनि याहू करुना बिरह बरनत कवि समुदाइ।
सुख उपाय ना रहे जो जिय निकसन अकुलाई॥984॥
जासो पति सब जगत मैं सो पति मिलन न आइ।
रे जिय जीबो बिपत कौ क्यौं यह तोहि सुहाई॥985॥
सुख लै संग जिहि जियत ज्यौं पियतन रच्छक काज।
सोऊ अब दुख पाइ कै चलो चहत है आज॥986॥

वियोग-शृंगार
दसदसा-कथन

धरे बियोग सिंगार मैं कवि जो दसादस ल्याइ।
लच्छन सहित उदाहरन तिनके सुनहु बनाइ॥987॥
मिलन चाह उपजै हियै सो अभिलाष बखानि।
पुनि मिलिबे को सोचु कौ चिंता जिय में जानि॥988॥
लखै सुनै पिय रूप कौ सौरे सुमिरन सोइ।
पिय गुन रूप सराहिये वहै गुन कथन होइ॥989॥
सो उद्वेग जो बिरह ने सुखद दुखद ह्वै जाइ।
बकै और की और जो सो प्रलाप ठहिराइ॥990॥
सो उनमाद जो मोह ते बिथा काज कछु होइ।
कृसता तन पियराइ अरु ताप व्याधि है सोइ॥991॥
जड़ता बरनन अचल जहँ चित्र अंग ह्वै जाइ।
दसमदसा मिलि दस दसो होत बिरह तें आइ॥992॥

अभिलाष-उदाहरण

अलि ही ह्वै वह द्योस जो पिय बिदेस ते आइ।
विथा पूछि सब बिरह कौ लैहैं अंग लगाई॥993॥
जेहि लखि मोह सो बिमुख मै चकोर ह्वै नैन।
रे बिधि क्यौंहू पाइहौं तेहि तिय मुख लखि चैन॥994॥

चिंता-उदाहरण

इत मन चाहत पिय मिलन उत रोकति है लाज।
भोर साँझ को एक छिन किहि बिधि बसै समाज॥995॥
कौन भाँति वा ससिमुखी अमी बेलि सी पाइ।
नैनन तपन बुझाइ के लीजै अंग लगाइ॥996॥

स्मरण-उदाहरण

खटक रहौ चित अटक जौ चटक भरी बहु आइ।
लटक मटक दिखराइ कै सटकि गई मुसक्याइ॥997॥
कहा होत है बसि रहै आन देस कै कंत।
तो हौं जानौ जो बसौ मो मनते कहु अंत॥998॥
लखत होत सरसिज नमन आली रवि बे और।
अब उन आँनदचंद हित नयन करîो चकोर॥999॥
चन्द निरखि सुमिरन बदन कमलबिलोकत पाइ।
निसि दिनि ललना की सुरति रही लाल हिय छाइ॥1000॥
बिछुरनि खिन के दृगनि मैं भरि असुँवा ठहरानि।
अरु ससकति धन गर गहन कसकति है मन आनि॥1001॥
या पावस रितु मैं कहौ कीजै कौन उपाइ।
दामिनि लखि सुधि होति है वा कामिनि की आइ॥1002॥

गुणकथन-उदाहरण

दिन दिन बढ़ि बढ़ि आइ कत देत मोहि दुख द्वंद।
पिय मुख सरि करि है न तू अरे कलंकी चंद॥1003॥
जिहि तन चंदन बदन ससि कमल अमल करि पाइ।
तिहि रमनी गुन गन गनत क्यौं न हियौ सहराइ॥1004॥

उद्वेग-उदाहरण

जरत हुती हिय अगिन ते तापैं चंदन ल्याइ।
बिंजन पवन डुलाइ इनि दीन्हौं अधिक जराइ॥1005॥
कमलमुखी बिछुरत भये सबै जरावन हार।
तारे ये चिनगी भए चंदा भयो अँगार॥1006॥

प्रलाप-उदाहरण

स्याम रूप घन दामिनी पीतांबर अनुहार।
देखत ही यह ललित छबि मोहि हनत कत मार॥1007॥
तू बिछुरत ही बिरह ये कियो लाल को हाल।
पिय कँह बोलत यह कहत मोहि पुकारत बाल॥1008॥

उन्माद उदाहरण

खिनि चूमति खिनि उर धरति बिन दृग राखति आनि।
कमलन को तिय लाल के आनन कर पग जानि॥1009॥
कमल पाइ सनमुख धरत पुहुपलतन लपटाइ।
लै श्री फल हिय मैं गहत सुनत कोकिलन जाइ॥1010॥

ब्याधि-उदाहरण

बिरह तचो तन दुबरी यैं परयंक लखाइ।
मनु सित घन की सेज पै दामिनि पौढ़ी आइ॥1011॥
मन की बात न जानियत अरी स्याम को गात।
तो सों प्रीत लागइ कै पीत होत नित जात॥1012॥

जड़ता-उदाहरण

नेक न चेतत और बिधि थकित भयो सब गाँउ।
मृतक सँजीवन मंत्र है वाहि तिहारो नाँउ॥1013॥
तुव बिछुरत ही कान्ह की यह गति भई निदान।
ठाढ़े रहत पखान ते राखै मोर पखान॥1014॥

दसदसा-उदाहरण

बिदित बात यह जगत में बरन गये प्राचीन।
पिय बिछुरे सब मरत हैं ज्यौं जल बिछुरत मीन॥1015॥

पांती-वर्णन

बिथा कथा लिखि अंत की अपने अपने पीय।
पाँती दैहैं और सब हौं दैहौं यह जीय॥1016॥
पिय बिन दूजो सुख नहीं पाती के परिमान।
जाचत बाचत मोद तन बाँचत बाचत प्रान॥1017॥
नैन पेखबे को चहै प्रान धरन को हीय।
लहि पाँती झगरîौ परîौ आनि छुड़ावै पीय॥1018॥

संदेशा-वर्णन

पकरि बाँह जिन कर दई बिरह सत्रु के साथ।
कहियो री वा निठुर सों ऐसे गहियत हाथ॥1019॥
कहि यो री वा निठुर सों यह मेरी गति जाइ।
जिन छुड़ाइ निज अंग ते दई अनंग मिलाइ॥1020॥