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वियोग में / रस प्रबोध / रसलीन

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वियोग में

बारहमासा-वर्णन
चैत्र-वर्णन

धनुष बान दोऊ नए दै फूलन कै चैत।
जैतवार सब जगत को कियो काम कमनैत॥1021॥
स्याम संग काके सुनत बाढ़त मोद तरंग।
सो बिहंग धुनि करत या चैत माह चित भंग॥1022॥

वैसाख-वर्णन

लाखु जतन कहि राखिये करै जार तन राख।
साख साख जो ढाक की फूल रही बैसाख॥1023॥
पुहुप रूप इनि-दूमनि मैं आगि लागि है आइ।
तौ जरि ये भँवर सब कारे भये बनाइ॥1024॥

बसंत-समीर-वर्णन

प्राननाथ बिन आइ इन को राखै गहि हाथ।
पवन प्रान सो गोतु गनि लिये जात निज साथ॥1025॥

जेठ-वर्णन

बिंजन लै करि मैं धरति बाहर देति न पाइ।
वृष आतप बिनु स्याम घन दासी करîौ बनाइ॥1026॥
जेठ पवन करि गवन यह दीन्हौ अवनि जराइ।
बिनु घन स्यामहि दवनि सहि केहू भवन न जाइ॥1027॥

आसाढ़-वर्णन

कठिन परîौ बिन प्रानपति अब तन रहिबौ प्रान।
मारुत चक्र असाढ़ के मारत चक्र समान॥1028॥
हरि बिन फेरत आइ ब्रज गरजि गरजि ललकार।
ये असाढ़ घ्ज्ञन तड़ित की बाडि धरो तलवार॥1029॥

सावन-वर्णन

हाथ सरासन बान गहि मघवा सासन मानि।
मन भावन बिन प्रान इन सावन लीन्हौं आनि॥1030॥
ज्यौं सागर सलिता लता द्रुमन लगाई अंग।
त्यौ सावन मिलवत न क्यौं मों मन भावन संग॥1031॥

भादो-वर्णन

भादों के दिन कठिन बिन जादव मोहि बेहाइ।
तापै छनदा की तड़ित छिन छिन दागति आइ॥1032॥
रो दामिनि घनस्याम मिलि कत मो सनमुख आइ।
हनन लगी है सोति लौं अपनी चटक दिखाइ॥1033॥

कुवार-वर्णन

मुकुत भये हैं पितर सो वेऊ आवत घाम।
तेहि कुँवार मैं जाइ कै अंत बसे हैं स्याम॥1034॥
आजु कलंकी चन्द यह दोषा को संग पाइ।
दिन सी जोन्हि कुँवार की जिय मारति है आइ॥1035॥

कार्त्तिक-वर्णन

सबै प्रभात अन्हाय को यहि कातिक मों जात।
मैं अपने अँसुवानि सों बैठा सदा अन्हात॥1036॥
और देत हैं दीप सब जिनके कंत समीप।
इम बारे हरि नेह ते रोम रोम में दीप॥1037॥

अगहन-वर्णन

अंत कहै यह आपने लोपन काज निदान।
आयो अगहन नाम धरीं गहन तियन के प्रान॥1038॥
कठिन परîौ है अवधि लौं अब तन रहिबो सांस।
प्रान संग हरी लै गये मास हरत हरि मास॥1039॥

पूस-वर्णन

भान तेज सब तें सरिस जगत माहि दरसाइ।
सोउ जाइ धन रासि मैं छप्यो सीत डर पाइ॥1040॥
सीत अनीत निहारि कै तजी प्रान तें आस।
मित्र होत धन रासि मैं जौन मित्र धन पास॥1041॥

माघ-वर्णन

माघ सीत यह मीत बिन करि अनीत लपटात।
याते प्रतिनिति अगिनि मैं तन सोघत ही जात॥1042॥
माघ मास लें तब तहीं यह दुख भयो अनंत।
क्यौं बसन्त अब खेलि हैं कंत बसे हैं अंत॥1043॥

फाल्गुन-वर्णन
भागभरी अनुराग सों हिलिमिलि गावत राग।
मोहिं अभागिनि फागुही बिधि दीन्हौं वैराग॥1044॥
मन मोहन बिनु बिरह तें फाग रच्यौ इन चाल।
पीरो रंग अंगन छयो असुँवन झरत गुलाल॥1045॥

सामान्य एवं मिश्रित शृंगार-वर्णन

नहि संजोग बियोग जँह ज्यौ पिय बैठे द्वार।
तहँ सामान्य सिंगार है कविजन कियो विचार॥1046॥
जह सँजोग में बिरह के बिरह माझ संजोग।
तह मिश्रित सिंगार कहि बरनत है कवि लोग॥1047॥
सौतुक अरु सपने निरखि सुनि पिय बिछुरन बात।
दंपति को चित आइ कै सुख में दुख ह्वै जात॥1048॥
त्यौंही सगुन संदेश अरु पाँतोहु को पाइ।
अनुरागिनि को बिरह में हरष होत है आइ॥1049॥
उदाहरन इन दुहुन के निज में मैं अविरेखि।
गभिषिति पति का माहि अरु आगमिषित मैं देखि॥1050॥

वाक्य-भेद

तिय पिय सों पिय तीय सों तिय सखी सों सखि तीय।
सखि सखि सों सखि पीय सों कहै सखी सों पीय॥1051॥
कहूँ प्रस्न उत्तर कहूँ प्रस्नोत्तर कहुँ होइ।
सो तिनि सँभवै होत कहुँ बक एतै विधि जोइ॥1052॥