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विरह-व्यथा-पीडित / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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विरह-व्यथा-पीडित, विषाद-मुख बैठी निज एकान्त निकुज।
प्रियतम-स्मृति-रत, विरत जगत सब, विस्मृत सकल बिषय-सुख-पुज॥
श्याम-वियोग-‌अनल जलते सब अङङ्ग, अनलसे उपजा जल।
बही अश्रुधारा अजस्र अति उष्ण, जलाती सारा स्थल॥
उदय हु‌आ उच्चाट घोर उर, निकली मुखसे करुण पुकार-
’हा प्राणेश! प्राणवल्लभ! हे प्राण-प्राण! हा प्राणाधार!॥
बचन रुद्ध हो गया अचानक, सूखे नेत्र, स्तध सब अंग।
हु‌ए, तभी दीखे मनमोहन, विजयी अमित अनन्त अंग॥
मधुर-सुमधुर, मधुर उससे भी, परम मधुर, उससे भी और।
मधुर-मधुरतम, नित्य-निरन्तर वर्द्धनशील मधुर सब ठौर॥

अंग-अंग माधुर्य-सुपूरित, मधुर अमृतमय पारावार।
अखिल विश्व सौन्दर्य, मधुर माधुर्य सकलके मूलाधार॥
नील कमल कमनीय कलेवर सहज सौरभित मधुर अपार।
नेत्रद्वय, मुख, नाभि, करद्वय, चरणद्वय द्युति-सुषमागार॥

विविध वर्ण, सौरभ विभिन्न युत अष्टस्न्-कमल ये अति अभिराम।
यों विकसित नव कमल मिलित हो अनुपम शोभा हु‌ई ललाम॥
देख छबीली छटा, देख छरहरा बदन, छाया आनन्द।
छकी, लुभा‌ई, लगी देखने अपलक अति अतृप्त अद्वन्द॥

उमड़ा उर आनन्द-सुधा-निधि, बही नेत्र शीतल रस-धार।
देख अतुल छवि, माधव मृदु हँस बोले अमृत वचन सुख-सार॥
प्रिये ! तुहारा तन-मनका यह दिव्य अतुल लीला-विस्तार।
सहज निरीहरूप मुझमें भी, करता इच्छाका संचार॥

परमानन्दरूप मैं पाता इसे देख अतिशय आनन्द।
इसीलिये मैं छिप-छिपकर अविरत देखा करता स्वच्छन्द॥
परमसिद्ध योगीन्द्र, ब्रह्मावेाा मुनीन्द्र, शुचितम सब संत।
छू सकते न तुहारी छाया, पा सकते न भावका अन्त॥

ललचाते नित रहते, कहते धन्य ! धन्य ! गोपी-जन-भाव।
चरण-धूलि-कण सदा चाहते, सेवाका अति रखते चाव॥
इसीलिये वे पशु-पक्षी-द्रुम बन ब्रजमें लेते अवतार।
पद-रज-कण ले गोपीजनका होते धन्य सिरोंपर धार॥