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विवशता / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
आदमी जब तक मरता नहीं
जीना पड़ता है
पाँव जब तक थकते नहीं
चलना पड़ता है
कभी-कभी तो ज़हर को
जीवन का रस मानकर पीना पड़ता है
ज़िंदा को भी ज़िंदा रहने के लिए
कई-कई बार मरना पड़ता है
और मरते हुए भी 'सलाम’ कहना पड़ता है
मंजि़ल पाने, अपने पैरों आप, चलना पड़ता है