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Kavita Kosh से
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समझ रहे हो, चढ़ान की हैं
ये सीढ़ियाँ ही तो ढलान की हैं
ये धर्म, भाषा, अमीर, मुफ़लिस
उन्हीं को फिकरें जहान की हैं
ये खूबियाँ बस बयान की हैं
नसीब-ए-शब् में सहर है इक दिन
ये बातें बस खुशगुमान की हैं
मिठाइयाँ बस वो ही हैं फीकी
जो सब से ऊँची दुकान की हैं
क़तर के पर, वो कहे है 'श्रद्धा'
खुली हदें आसमान की हैं
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