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Kavita Kosh से
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मैं बनूँ वह वृक्ष जिसकी स्निग्ध छाया में कभी
थे रुके दो तरुण प्रणयी, फिर न रुकने को कभी।
मैं बनूँ वह शैल जिसके, दीन मस्तक पर कभी
थे रुके दो मेघ क्षण भर, फिर न रुकने को कभी।
मैं बनूँ वह भग्न-गृह, जिसके निविड़ तम में कभी
थे जले दो दीप क्षण भर, फिर न जलने को कभी।
मंगलों से जो सजा था मधुर गीतों से भरा
मैं बनूँ वह हर्ष, जाता जो न फिरने को कभी।
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