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वह / श्याम महर्षि

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और मुझ से अधिक कविता को
गहरे तक जानता है !
 
 
अनुवाद : नीरज दइया
 
***
 
न्याय
कव्वै को कव्वा
सारस को सारस ही रहने दीजिए
चाहे किसी का प्रियतम आए
महलों में या फिर किसी का बीर
पधारे घर को ।
 
इन पर होना क्रोधित
या जाहिर करना खुशी
दोनों ही बातों का अर्थ
उन्हें मालूम नहीं ।
 
बिल्ली का रास्ता काटना
गधे का किसी दिशा में चलना
सुगन-पक्षी का कुछ बोलना
कोई सुगन नहीं है
ऐसा मानना कहां है न्याय-संगत ?
 
इस धरती के
और धरती पर बिखरी
पूरी प्रकृति के
है मालिकाना हक
क्या सिर्फ मनुष्यों के ही ?
नहीं, यह सब हमारा नहीं
इनका और उनका, है सभी का ।
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
</poem>
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