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अपने ही खेत की मिट्टी से जुदा हूं मैं तो
इक शरारा हूं कि पत्थर से उगा हूं मैं तो
मेरा क्या है कोई देखे या न देखे मुझको
सुब्ह के डूबते तारों की ज़िया हूं मैं तो
अब ये सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ इक रात की लज्जत का सिला हूं मैं तो
वो जो शोलों से जले उनका मदावा है यहां
मेरा क्या जिक्र कि पानी से जला हूं मैं तो
कौन रोकगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूं मैं तो
लाख मुहमल सही पर कैसे मिटाएगी मुझे
जिन्दगी तेरे मुकद्दर का लिखा हूं मैं तो।
इक शरारा हूं कि पत्थर से उगा हूं मैं तो
मेरा क्या है कोई देखे या न देखे मुझको
सुब्ह के डूबते तारों की ज़िया हूं मैं तो
अब ये सूरज मुझे सोने नहीं देगा शायद
सिर्फ इक रात की लज्जत का सिला हूं मैं तो
वो जो शोलों से जले उनका मदावा है यहां
मेरा क्या जिक्र कि पानी से जला हूं मैं तो
कौन रोकगा तुझे दिन की दहकती हुई धूप
बर्फ के ढेर पे चुपचाप खड़ा हूं मैं तो
लाख मुहमल सही पर कैसे मिटाएगी मुझे
जिन्दगी तेरे मुकद्दर का लिखा हूं मैं तो।