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आग / मोहन आलोक

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जंगल है
मंगल है
मनुख* (मनुष्य) है
इस के सुख ही
सुख है
और दिन ब दिन
अजगर की तरह पल रही है ।
 
 
* मनुख = मनुष्य
 
'''अनुवाद : नीरज दइया'''
</poem>
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