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छू रहे हैं पीठ-गर्दन-माथ
खाँसियों में फेफड़े का दर्द ढलता है!
::::दिन निकलता है!
खिड़कियों से फ़र्श पर कफ़ गिरी
रैक-टेबिल -खाट पर बिखरीसीढ़ियों-सड़कों-दुराहों दोराहों परजिसे ओढ़े बिलबिलाता नगर चलता है!
आख़िरी क़तरा लहू का : शाम!
टूटने को नसें खिंचती हैं
धड़कनों में कहीं पर फ़ौलाद गलता है!
::::दिन निकलता है!(1965)
</poem>
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