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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=वृन्द}}[[नीति के Category:दोहे / वृन्द]] <br>
'''नीति के दोहे''' <br>
जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।<br>
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥ 11<br>
जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।<br>
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13<br><br>
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।<br>
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15<br><br>
बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।<br>
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16<br><br>