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दो कविताएँ / शलभ श्रीराम सिंह

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<poem>
खिड़कियाँ जो खुली हैं इस बक्त
इनमें --कहीं कोई एक चेहरा है तुम्हारा !
और नीचे सड़क पर चलती हुई इस भीड़ में
अब भी कहीं हूँ मैं !
और अगले मोड़ से शायद शुरु होगी
यह अँधेरी गली
रोशनी में नहाकर जो
सूखने के लिए गीली हवा को आकाश में लटका,
झुकाए आँख अपनी छातियों को देखती थी
और लेकर आड़ अपने खुले बालों की
रगड़ती थी उन्हें घुटनों से !
उस समय भी कहीं पर तुम थीं
और मैं भी ....!
(1963)
</poem>
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