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फूटेंगे बोल,
एक दिन नदी की बाँक पर ठिठक कर
मुड़कर खड़े-खड़े हाँक लगा कर कहूंगी कहूँगी : बस..., अब और नहीं।
सूर्य अस्ताचल की ओर जाए या कि सिरहाने जलता रहे
मैं कहूंगी : अब और नहीं।
सारी कड़वाहट, सारा रूखापन
पारे की मानिन्द भारी हो ढुलक जाएगा
रेत, पत्थर और कंकड़ों कँकड़ों के साथ मिल कर
बहुत गहराई में तलछट बन जमा रहेगा।
ऊपर खेलता रहेगा हल्की स्वच्छता का स्रोत
शुचिता की लहरों में अपनी देह को बहाती
छोटी बत्तख़ों-सी निश्चिन्त
मैं तब आत्मीय पानी में उतर जाऊंगी।जाऊँगी।
'''मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी
</poem>
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