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मैं कई सौ वर्षों तक
 
तुम्हारी प्रताड़ना सहता रहा
 चीखताचीख़ता-चिल्लाता रहा 
और तुम
 
मेरी वेदना, मेरी पीड़ा, मेरी चुभन
 
मेरी घुटन, मेरी छटपटाहट
 
को अनदेखा कर
ज़ालिम न्याय प्रणाली की दुहाई देते रहे
जालिम न्याय प्रणाली की दुहाई देते रहे  मेरे जख्मों ज़ख़्मों पर मरहम की जगह 
तुमने नमक-मिर्च रगड़ा
 
मैं और छटपटाया,
 
तुम और जोर से हंसे
 
क्या करता मैं ?
 
खून के आंसू पीकर रह गया
 
तुम वर्षों तक हमारी मां-बेटियों
 
की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहे
 
और मैं देखकर भी कुछ न कर सका
 
अपने आक्रोश को रोके
 
मैं भाग्य, भगवान और विधि का
 
विधान मानकर, कुंठित होकर बैठ गया
 
लाचार था, आखिर बेबस था
 
क्या मिला मुझे ?
 हर पल, हर क्षण, हर कदम क़दम पर 
अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा
 
और अत्याचार
 
तुम अभी तक मेरी आंखों में
 
नहीं पढ़ सके मुझे,
 
कैसे पढ़ सकोगे तुम,
 
तुम्हारी आंखें तो पत्थर की हैं
 
एक इतिहास हूं मैं और विद्रोह भी हूं,
 
हां, मैं मूक नहीं हूं,
मैं उन बेज़ुबानों की आवाज़ हूं
मैं उन बेजुबानों की आवाज हूं जिनकी जुबान ज़ुबान ‘वेद-मंत्र’ दोहराने 
पर काट दी गई
 
मैं उन लोगों की श्रवण शक्ति हूं
 
जिनके कानों में ‘वेद-मंत्र’ सुनने पर
 
उबलता हुआ शीशा उड़ेल दिया गया
 
मैं उन लोगों का पांव हूं
 
जिन्हें न्याय की याचना करने के लिए
 बढ़ने पर कलम क़लम कर दिया गया 
हां, बहुत तड़पा हूं मैं,
 
आज मैं चुप नहीं रहूंगा,
 आज मैं खामोश ख़ामोश नहीं रहूंगा, क्योंकि जब-जब मैं खामोश ख़ामोश रहा 
तुम मुझे शूद्र, हरिजन और गुलाम
 
कहकर मेरे साथ बराबर अत्याचार
 
करते रहे
 
कितना मुझे दर्द हुआ था,
 
कितना मैं तड़पा था,
 
मुझे पहचानो, मैं वही हूं,
 
मैं शम्बूक के कटे सिर की
 
वो आत्मा हूं जिसमें एक आग जल रही है,
 
जब यह आग फैलेगी तो
 
तुम बुझा नहीं पाओगे
 
मैं एकलव्य का कटा हुआ वो अंगूठा हूं
 
जो करोड़ों के हाथों में जुड़कर
 शोषण के खिलाफख़िलाफ़, वर्ण-व्यवस्था के खिलाफख़िलाफ़जातिवाद के खिलाफ ख़िलाफ़ निशाना लगाएगा 
मुझे जानो, मुझे पहचानो,
 
मैं एक शब्द हूं,
 
मैं वो ‘दलित’ शब्द हूं
 जिसकी धार तेज तेज़ हो गयी है, 
मैं मशाल की वो आग हूं,
 
मैं पचासी करोड़ का वो हथियार हूं
 
जिससे क्रान्ति होगी
 
और क्रान्ति होनी है</poem>