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|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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शब्‍द के आकाश पर उड़ता रहा,

::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।


एक दिन भोली किरण की लालिमा ने

:क्‍यों मुझे फुसला लिया था,

एक दिन घन-मुसकराती चंचला ने

:क्‍यों मुझे बहका दिया था,

::एक राका ने सितारों से इशारे

:::क्‍यों मुझे सौ-सौ किए थे,

एक दिन मैंने गगन की नीलिमा को

:किसलिए जी भर पीया था?

::आज डैनों की पकी रोमावली में

::वे उड़ानें धुँधली याद-सी हैं;

शब्‍द के आकाश पर उड़ता रहा,

::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।


याद आते हैं गरूड़-दिग्‍गज धनों को

:चीरने वाले झपटकर,

और गौरव-गृद्ध सूरज से मिलाते

::आँख जो धँसते निरंतर

:::गए अंबर में न जलकर पंख जब तक

:::हो गए बेकार उनके, क्षार उनके,

हंस, जो चुगने गए नभ-मोतियों को

:और न लौटे न भू पर,

::चातकी, जो प्‍यास की सीमा बताना,

:::जल न पीना, चाहती थी,

उस लगन, आदर्श, जीवट, आन के

::साथी मुझे क्‍या फिर मिलेंगे।

शब्‍द के आकाश पर उड़ता रहा,

::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।


और मेरे देखते ही देखते अब

:वक्‍त ऐसा आ गया है,

शब्‍द की धरती हुई जंतु-संकुल,

:जो यहाँ है, सब नया है,

::जो यहाँ रेंगा उसी ने लीक अपनी

:::डाल दी, सीमा लगा दी,

और पिछलगुआ बने, अगुआ न बनकर,

:कौन ऐसा बेहाया है;

::गगन की उन्‍मुक्‍तता में राह अंतर

::की हुमासे औ' उठानें हैं बनातीं,

धरणि की संकीर्णता में रूढि़ के,

:::आवर्त ही अक्‍सर मिलेंगे।


आज भी सीमा-रहित आकाश

::आकर्षण-निमंत्रण से भरा है,

आज पहले के युगों से सौ गुनी

::मानव-मनीषा उर्वरा है,

::आज अद्भुत स्‍वप्‍न के अभिनव क्षितिज

:::हर प्रात खुलते जा रहे हैं,

मानदंड भविष्‍य का सितारों

:की हथेली पर धारा है;

::कल्‍पना के पुत्र अगुआई सदा करते

::रहे हैं, और आगे भी करेंगे,

है मुझे विश्‍वास मेरे वंशजों के

::पंख फिर पड़कें-हिलेंगे,

::फिर गगन-कंथन करेंगे!

शब्‍द के आकाश पर उड़ता रहा,

:::पद-चिह्न पंखों पर मिलेंगे।
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