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|पीछे=मेल्यौ उर आँनद अपार मैन सोवत हीं / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=हौरैं-हौंरैं डोलतीं सुगंध-सनीं डारन तैं / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 1
}}
<poem>
'''रूप घनाक्षरी'''
(''वसंतकालसूचक वस्तुओं के हेतु तर्क करने का वर्णन'')
सुर ही के भार सूधे-सबद सु कीरन के, मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौंन ।
’द्विजदेव’ त्यौं हीं मधु-भारन अपारन सौं, नैंकु झुकि-झूमि रहे मौंगरे-मरुअदौंन ॥
खोलि इन नैननि निहारौं-तौं-निहारौं कहा, सुखमा अभूत छाइ रही प्रति भौंन-भौंन ।
चाँदनी के भारन दिखात उनयौ सौ चंद, गंध ही के भारन बहत मंद-मंद पौंन ॥४॥
</poem>
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'''रूप घनाक्षरी'''
(''वसंतकालसूचक वस्तुओं के हेतु तर्क करने का वर्णन'')
सुर ही के भार सूधे-सबद सु कीरन के, मंदिरन त्यागि करैं अनत कहूँ न गौंन ।
’द्विजदेव’ त्यौं हीं मधु-भारन अपारन सौं, नैंकु झुकि-झूमि रहे मौंगरे-मरुअदौंन ॥
खोलि इन नैननि निहारौं-तौं-निहारौं कहा, सुखमा अभूत छाइ रही प्रति भौंन-भौंन ।
चाँदनी के भारन दिखात उनयौ सौ चंद, गंध ही के भारन बहत मंद-मंद पौंन ॥४॥
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