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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=सुर ही के भार सूधे-सबद सु कीरन के / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=संभ्रम अति उर मैं बढ़्यौ / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 1
}}
<poem>
'''रूप घनाक्षरी'''
(''चित्त स्थिर होने पर वसंत-शोभा का अनुभव करते हुए वर्णन'')
हौंरैं-हौंरैं डोलतीं सुगंध-सनीं डारन तैं, औंरैं-औरैं फूलन पैं दुगुन फबी है फाब ।
चौंथते चकोरन सौं, भूले भए भौंरन सौं, चारयौ ओर चंपन पैं चौगुनौं चढ़ौ है आब ॥
’द्विजदेव’ की सौं दुति देखत भुलानौं चित, दसगुनी दीपति सौं गहब गछै गुलाब ।
सौगुने समीर ह्वै सहसगुने तीर भए, लाखगुनी चाँदनी, करोरगुनौं महताब ॥५॥
</poem>
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'''रूप घनाक्षरी'''
(''चित्त स्थिर होने पर वसंत-शोभा का अनुभव करते हुए वर्णन'')
हौंरैं-हौंरैं डोलतीं सुगंध-सनीं डारन तैं, औंरैं-औरैं फूलन पैं दुगुन फबी है फाब ।
चौंथते चकोरन सौं, भूले भए भौंरन सौं, चारयौ ओर चंपन पैं चौगुनौं चढ़ौ है आब ॥
’द्विजदेव’ की सौं दुति देखत भुलानौं चित, दसगुनी दीपति सौं गहब गछै गुलाब ।
सौगुने समीर ह्वै सहसगुने तीर भए, लाखगुनी चाँदनी, करोरगुनौं महताब ॥५॥
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