भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
/* मेरे आशियाने में है , आशियाना ये किसका ? */ नया विभाग
Abhinav
e-mail roughsoul@gmail.com
== मेरे आशियाने में है , आशियाना ये किसका ? ==
"एक दिन एक इंसान ने ,
देखा आशियाना एक परिंदे का अपने आशियाने में ,,
वो बोला उस परिंदे से ,
मेरे आशियाने में है , आशियाना ये किसका ,
"एक दिन एक इंसान ने ,
साफ दिख रहा है , मुझे फसाना उसका ,
देखा आशियाना एक परिंदे का अपने आशियाने में ,,
वो बोला उस परिंदे से ,
मेरे आशियाने में है , आशियाना ये किसका ,
साफ दिख रहा है , मुझे फसाना उसका ,
कभी इधर , कभी उधर ,
तकते नयना जाने किधर ,
सुना परिंदे ने इस बात को ,
रह सका न खामोश वो ,
सुनाई कुछ इस तरह अपनी दश्तान को ,,,
वो बोला ,,
ठंडी हवा से सुकून लेके ,
धरा से जीवन आसमां से पानी ,
था नीला समंदर वो ,
और पेड़ो से थी हरियाली ,,
बस यही तो थी हमारी कहानी ,,,
दूर जाता दिखता है उधर ,
कुए का पानी बिकता है किधर ,
नीला समुन्द्र रहा न अब नीला ,
धानी रंग बचा न अब पूरा ,
आश्मां ने भी बदल लिए अपने रंग हैं
जाने किस बात का हो गया है असर ,
पेड़ो पर से उठ गया हैं ठिकाना ,
इंसानों ने जो काट के पेड़ो को ,
अपना घर है जो बनाया ,
जब मिला न हमें कही भी ठिकाना
तभी तो हमने भी तेरे आशियाने को अपना आशियाना है बनाया ,
सुनकर उस परिंदे की दस्ता ,
हो गया भावुक इन्सान वो ,
और सोचने लगा मन ही मन वो ,
दोष नहीं है इसका कोई ,
भोग रहा हैं हमारी ही गलतियों का नतीजा बेजुबान ये ........."'''मोटा पाठ'''