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पल-भर सोये जहाँ वहीं इतिहास पुराना पड़ता
एक चूक के लिए पीढ़ियों तक पछताना पड़ता
लाख आँसुओं से न धुलेगा फिर धरती का दागदाग़
. . .
निज बल का आधार न जिनको, पर के बल जीते हैं
अपमानित भी विवश, खून का घूँट वही पीते हैं
भय के बिना न प्रीति,  शक्ति शक्ति के बिना न्याय रीते हैं
मानव की वन्यावस्था के दिन न अभी बीते हैं
क्षीण-कंठ तू गा न सकेगा कभी शान्ति का राग
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